मैला दर्पण
'मैला दर्पण’ कलापारखी मोती
भुवानिया का क्या संचयन है । उनकी कविताओँ में कलाकृतियों जैसे
वर्णबिम्बों को भरमार को वजह शायद यही है कि एक लंबे अर्से तक कला की
दुनिया से संबद्ध होने के कारण वे कविता में या कहें शब्दों में एक मुकम्मल
चित्र की रचना कर डालते है । कविता के लिए शब्द चुनते वक्त जैसे वे
आकृतियों के रूप चुनते है ।
'मैला दर्पण’ स्मृति
का पुनरख्यान नहीं है । वह एक लंबे 'कैनवस' पर जीवन को संपूर्णता में
उकेरने की एक व्यवस्थित कोशिश है । व्यवस्थित इसलिए कि मोती भुवानिया का
विचार जगत अनिर्णय से ग्रस्त किसी मोह से लिपटा हुआ नहीं है । वे भरसक खुद
को भी तोड़कर-फिर से नए रूप में छोड़ने की ललक से भरे हुए है । नई कविता के
उत्कर्ष काल में जिस विविधता का भव्यतापूर्ण रचनात्मक रूप कविताओं में
चित्रित हुआ है उसका सौष्ठव अपनै चरम रूप में भुवानिया जी की कविताओं में
मिलेगा । यह तो मात्र संयोग है कि 'मैला दर्पण' के उस सौष्ठव में
काव्य-भाषा के अब तक प्रचलित रूपों के साथ अद्यतन रूपों की झलक भी मिलेगी ।
और कहना पडेगा कि एक प्रासंगिक कविता में परंपरा और भविष्य दोनों एकमेक
होकर कविता को अगली दस्तक की पहचान मिलती है ।
सबसे
अधिक महत्त्वपूर्ण 'मैला दर्पण' की भाषा है, जिसमें एक साथ प्राज्जलता का
प्रदर्शनकारी रूप है तो लोक का विलुप्त-सा वह संस्पर्श भी जो हलके से हमें
अपनी 'लोकस्मृति' से जोड़ देता हैं ।
कुल मिलाकर
भुवानिया जी की वे कविताएँ हमें हमारे वैभव में परिचित कराती है तो साथ ही
साथ हमें बहुत कूर रूप से हमारे वर्तमान से भी जोड़ती है। भाषा के स्तर पर
भुवानिया जी की कविताएँ न केवल अपने समकालीनों से अलग है अपितु अपने
परवर्तियों से भी कुछ आगे का अनुभव देतीं है ।